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Haryana employee Protest: हरियाणा कर्मचारी आंदोलन का इतिहास, सन् 1987 का आन्दोलन.. नया इतिहास रच दिया

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Haryana employee Protest: हरियाणा कर्मचारी आंदोलन का इतिहास, सन् 1987 का आन्दोलन.. नया इतिहास रच दिया

Haryana employee Protest: वर्षों लम्बे निराशा के दौर के बाद सन् 1987 के प्रारंभ हुए आन्दोलन ने एक ऐसा इतिहास रच दिया जिसे आज भी गर्व से याद किया जाता है।

Haryana employee Protest: दिनांक 5 सितंबर 1986 से कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में गैरशैक्षणिक कर्मचारियों का आन्दोलन चल रहा था। विश्वविद्यालय प्रशासन के साथ-साथ सरकार का रवैया भी नकारात्मक और दमनकारी था। यहाँ तक कि तत्कालीन मुख्यमंत्री बंसीलाल ने कुंटिया(KUNTEA) नेताओं को पिपली स्थित रेस्ट हाउस में वार्ता के लिए बुलाकर गिरफ्तार करवा दिया। इससे राज्य के अन्य कर्मचारियों में रोष फैल गया था। उससे पहले ही कुरुक्षेत्र और करनाल में ट्रेड यूनियन काउंसिल बनी हुई थी। इन दोनों के संयुक्त आह्वान पर 23 नवम्बर 1986 को कुरुक्षेत्र के काली कमली मैदान में (जहाँ आजकल संग्रहालय बना हुआ है) रैली की गई। राज्य भर से बहुत उत्साह और आक्रोश के साथ बड़ी संख्या में कर्मचारी पहुंच गए। आयोजकों को भी इतनी हाजिरी की उम्मीद नहीं थी। इस रैली की ताकत का एक संदेश तो यही गया कि प्रशासन ने विश्वविद्यालय कर्मचारियों के साथ समझौता कर लिया। रैली के मंच पर दो दर्जन से ज्यादा संगठनों के नेता मौजूद थे। उन्होंने उसी रात सैनी धर्मशाला में बैठक करने का निर्णय लिया ताकि राज्य के सभी कर्मचारियों के हितों की रक्षा के लिए आन्दोलन खड़ा किया जा सके। कर्मचारियों के रोष को अभिव्यक्ति देने के लिए दिनांक 01.12.1986 से 06.12.1986 तक उपायुक्त कार्यालयों पर धरने देने और 7 दिसम्बर1986 को जिला स्तरीय रैलियां करने का आह्वान कर दिया गया। दिनांक 14 दिसम्बर 1986 को करनाल के रोड़ भवन में सांझा बैठक रख दी गई। इस बैठक में 65 संगठनों के 600 से ज्यादा प्रतिनिधि मौजूद थे। धरनों और जिला रैलियों की सफलता से सभी उत्साहित थे। व्यापक विचार विमर्श के पश्चात् "सर्वकर्मचारी संघ हरियाणा" नाम से सांझा मोर्चा बना लिया। नया नाम और नया नेतृत्व लोगों के मन को भा गया। ग्यारह सदस्यीय एक्शन कमेटी बनाई गई जिसमें निम्नलिखित नेता शामिल थे -

सर्वकर्मचारी संघ की एक्शन कमेटी (Haryana employee Protest)

1. फूल सिंह श्योकंद (एडीओ एसोसिएशन - कृषि विभाग) 2. बनवारीलाल बिश्नोई (एच.एस.इ.बी. वर्कर्स यूनियन हेड ऑफिस, हिसार) 3. मास्टर शेरसिंह (हरियाणा राजकीय अध्यापक संघ) 4. लालचंद गोदारा (हरियाणा रोडवेज वर्कर्स यूनियन) 5. हरफूल भट्टी (स्वास्थ्य विभाग-मिनिस्ट्रियल स्टाफ) 6. जे. पी. पांडेय (चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी यूनियन) 7. बाबू राम गुप्ता (कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी नान-टीचिंग इम्प्लाइज एसोसिएशन) 8. रघुवीर सिंह फोगाट (पीडब्ल्यूडी कर्मचारी तालमेल कमेटी) 9. अमर सिंह धीमान (चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी यूनियन) 10. सूरजभान खोखर (रिवेन्यू पटवारी-कानूनगो एसोसिएशन) 11. मालहे राम (मैकेनिकल वर्कर्स यूनियन-41) छात्रों के लोकप्रिय नेता रहे फूलसिंह श्योकन्द को संयोजक और बिजली यूनियन के बनवारी लाल बिश्नोई को सह-संयोजक बनाया गया।

ऐतिहासिक आन्दोलन

14 दिसम्बर 1986 को सर्वकर्मचारी संघ हरियाणा का गठन और उसके द्वारा चलाया गया आन्दोलन हरियाणा ही नहीं, बल्कि पूरे देश के कर्मचारी आन्दोलन के इतिहास में नया अध्याय जोड़ने में सफल हुआ। देशभर में यह अपने ढंग का अनोखा आन्दोलन था जिसमें हड़ताल का समय सबसे कम (मात्र 5 दिन) रहा और इसने प्रदेश के राजनीतिक, प्रशासनिक और सामाजिक ढांचे को प्रभावित करने का नया रिकॉर्ड कायम कर दिया। इस आन्दोलन की दूसरी नयी बात यह रही कि इसमें केवल सरकारी कर्मचारी ही शामिल नहीं हुए, बल्कि सरकारी, अर्द्धसरकारी, स्वायत्तशासी, बोर्डों, निगमों, विश्वविद्यालयों, सहकारिता और नगरपालिकाओं के कर्मचारियों समेत सभी कर्मचारी शामिल हो गए।

आन्दोलन सात मुख्य माँगों को लेकर शुरू किया गया था (Haryana employee Protest)

1. केंद्रीय चतुर्थ वेतन आयोग की सिफारिशों के अनुसार वेतनमान देना; 2. केन्द्र के समान अन्तरिम राहत देना ; 3. सभी कर्मचारियों को 8.33 प्रतिशत बोनस देना; 4. 240 दिन की सेवा के आधार पर दिहाड़ीदार, वर्कचार्ज और तदर्थ कर्मचारियों की सेवाएं नियमित करना; 5.समयबद्ध पदोन्नति प्रणाली लागू करना; 6. अर्द्धसरकारी, स्वायत्तशासी व स्थानीय निकायों के कर्मचारियों को पेंशन सुविधा देना और 7. एन.एस.ए., एस्मा और संविधान की धारा 311(2) ए.बी.सी. को रद्द करना। आन्दोलन की कामयाबी के लिए कितना बलिदान करना पड़ा, इसका पूर्वानुमान लगाने के लिए यह कहना ही काफी है कि उस संघर्ष में कुल कर्मचारियों के लगभग एक चौथाई को किसी न किसी तरह के उत्पीड़न का सामना करना पड़ा था। उत्पीड़न और दमन के सभी हथकंडे इस्तेमाल किए गए और उस समय मौजूद सभी काले कानूनों के तहत मामले चलाए गए। कर्मचारियों में फूट डालने और कर्मचारियों व मेहनतकश जनता को आपस में लड़ाने की नापाक कोशिशें की गई, लेकिन कर्मचारियों की एकता, सूझबूझ, अनुशासन और उत्साह ने बंसीलाल सरकार को घुटने टेकने पर विवश कर दिया।

संघर्ष बढ़ता गया

जैसे ही कर्मचारियों के बीच नये मोर्चे के निर्माण की भनक सुबोर्डिनेट सर्विसेज फैडरेशन के नेताओं को मिली तो उन्होंने भी समानांतर कार्यक्रम छाप दिया, लेकिन राज्य के कर्मचारी एक नया इतिहास रचने की तैयारी में जुट गए थे। फैडरेशन को कहीं से कोई समर्थन नहीं मिला। दूसरी ओर नवगठित सर्वकर्मचारी संघ की ओर से जोनल रैलियों का आह्वान किया गया था जिसमें बड़ी संख्या में कर्मचारियों की हाजिरी दर्ज हुई। दिनांक 4 जनवरी 1987 को गुड़गांव जोन की रैली में दस हजार से अधिक कर्मचारियों के पहुंचने का अनुमान है। इस रैली में गुड़गांव के अलावा फरीदाबाद व महेन्द्रगढ़ के कर्मचारी शामिल हुए थे। एक सप्ताह बाद रोहतक, सोनीपत और भिवानी के कर्मचारियों ने रोहतक में रैली की। इसकी हाजिरी बीस हजार के पार रिपोर्ट हुई। उत्तरोत्तर बढ़ते समर्थन का ही साक्ष्य है कि 18 जनवरी की हिसार रैली में जीन्द, हिसार व सिरसा से लगभग 25 हजार कर्मचारी सम्मिलित हुए तथा 25 जनवरी 1987 कुरुक्षेत्र की रैली इस क्रम 30 हजार से अधिक उपस्थिति के साथ शीर्ष स्थान पर पहुंच गई थी। जोनल रैलियों की तैयारी के दौरान लगभग सभी कार्यालयों, विद्यालयों और फील्ड के हजारों कार्यस्थलों तक कार्यकर्ताओं की पहुंच बन गई थी। इसकी पुष्टि 15 फरवरी 1987 की भिवानी में हुई प्रान्तीय रैली से हो गई। किरोड़ीमल मैदान बहुत सी राजनीतिक सभाओं का भी साक्षी रहा है। हर किसी की जबान पर एक ही बात थी - भिवानी में पहले कभी इतनी बड़ी रैली नहीं देखी गई थी। कोई इसे डेढ़ लाख कह रहा था तो कोई दो लाख। मैदान के अलावा भिवानी शहर की सड़कों पर लगातार काफिले चलते दिखाई दिए। संघ के संयोजक फूलसिंह श्योकन्द के ओजस्वी सम्बोधन से समस्त हरियाणा गुंजायमान हो गया था। उन्होंने साफ कहा - "सर्वकर्मचारी संघ ऐसा संगठन है जो कहता है वह करता है तथा उतना ही कहता है जो कर सकता है।" यह हमारी कार्यनीति का सूत्रवाक्य बन गया था। इसके चलते कर्मचारियों के भीतर सर्वकर्मचारी संघ व उसके नेताओं की साख जम गई थी। कर्मचारियों के सीधी लड़ाई के जोश को आंकने के लिए 25 फरवरी 1987 को एक दिन के लिए सामूहिक अवकाश लेने की घोषणा की गई। यद्यपि इस कार्यक्रम की सफलता के लिए कार्यकर्ताओं ने अच्छी मेहनत की, लेकिन आम कर्मचारी तो कदाचित् तैयार ही बैठे थे। लाखों कर्मचारियों ने स्वेच्छा से अवकाश लेकर ड्यूटी देने से इन्कार कर दिया। अब तक यह तय हो गया था कि कर्मचारी किसी भी जंग के लिए तैयार हो गए थे।

ट्रेनिंग शुरू हुई

बहुत से नये और पुराने कार्यकर्ताओं के लिए यह नये ढंग के प्रशिक्षण का मंच बन गया था। आन्दोलन के दांवपेच इसी दौरान सीखे। दिनांक 30.03.1986 से चण्डीगढ़ में संयोजक फूलसिंह श्योकन्द द्वारा आमरण अनशन शुरू किया जाना था। नजदीक होने के कारण हम रादौर से फोरव्हीलर में पंद्रह साथी चले गए। सैक्टर 17 की थर्टी बेज बिल्डिंग के सामने शामियाना लगा दिया गया। गगनभेदी नारों के साथ साथी श्योकन्द को मरणव्रत पर बैठा दिया। लगभग तीन बज चुके थे। हम वापसी के लिए चलने ही वाले थे। पुलिस के डीएसपी आए और उन्होंने कहा कि आप यहाँ नहीं बैठ सकते। धारा 144 लगी हुई है। हमने उन्हें समझाने का प्रयास किया लेकिन वे अपनी बात पर अड़े हुए थे। इसी बीच सर्वकर्मचारी संघ के नेता हरफूल भट्टी भी तैश में आकर डीएसपी से उलझ गए। परिदृश्य बदल गया। डीएसपी ने और फोर्स बुलाकर जबरन टैंट उखाड़वा दिया। मजबूरन हमें कैंटीन के साथ बरामदे में अनशन स्थल बदलना पड़ा। इसके बाद बाकी साथियों को रादौर लौटा दिया और मैं रूक गया। नेताओं की सलाह बनी कि बदली हुई परिस्थिति में सैक्टर 20 में जाकर बाबा भागसिंह सज्जन से परामर्श कर लिया जाए। हम करीब 8-10 उनके पास पहुंच गए। संयोगवश एल.आई.सी. नेता गुरबचन सिंह भी वहीं मिल गए। बनवारीलाल बिश्रोई जी ने आन्दोलन और आज के घटनाक्रम की जानकारी देते हुए उनसे मार्गदर्शन करने का आग्रह किया। बात में से बात निकलती गई और अन्त में गुरबचन सिंह ने कहा कि मरणव्रत का फैसला गलत है। इसे वापस लेने पर विचार करना चाहिए। हमारे साथी भी उनकी बातों से प्रभावित लगे, लेकिन मुझे इस स्टेज पर पीछे देखना सही नहीं लग रहा था। मैं नया था, इसलिए सबके बीच में बोलने की हिम्मत तो नहीं जुटा पाया, लेकिन मैंने दो-तीन वरिष्ठ साथियों को बाहर बुलाकर अपने दिल की बात कही। उन्हें भी मेरी बात में दम लगा कि यदि इस मौके पर पीछे हटे तो सब किया-धरा मिट्टी में मिल जाएगा। खैर सभी बाहर आ गए। कामरेड सज्जन से विदाई ली। निर्णय यह हुआ कि अगले दिन करनाल में एक्शन कमेटी की बैठक रख दी गई तथा मुझे और रोडवेज के लालचन्द गोदारा को रात को ही रोहतक जाकर ट्रेडयूनियन नेताओं से परामर्श करके करनाल आने का निर्देश दिया। रोहतक पहुंच कर हमने सुबह चार बजे रघुवीर सिंह हुड्डा व पृथ्वीसिंह गोरखपुरिया से मुलाकात की। इसके बाद हमें स्थिति की जटिलता समझ में आ गई और करनाल बैठक में आकर धैर्य से आगे बढ़ते जाने का रोडमैप तैयार किया। पंजाब व चण्डीगढ़ के साथियों से दोबारा परामर्श करके तय हो गया कि वे आन्दोलन के सहयोगी की तरह हमारी मदद करते रहेंगे। हमें उनका कार्यालय इस्तेमाल के लिए मिल गया तथा उन्होंने हर तरह से हमारा सहयोग किया। इसके बाद 02.04.1987 को एक दिवसीय हड़ताल का आह्वान किया गया। इसे फरवरी के सामूहिक अवकाश के मुकाबले डेढ़ गुणा कर्मचारियों का समर्थन मिला। पुलिस ने दिनांक चार अप्रैल 1987 को फूलसिंह श्योकन्द को गिरफ्तार कर लिया। तत्काल उनके स्थान पर बनवारीलाल बिश्नोई मरणव्रत पर बैठ गए। मरणव्रत पर बैठे नेताओं के मनोबल को देखकर फील्ड में भी जोश बढ़ता जा रहा था। इस बीच तीन अप्रैल से जिलावार चण्डीगढ़ में गिरफ्तारियां देने का सिलसिला शुरू कर दिया था। इसका मकसद प्रशासन पर दबाव बढ़ाने के साथ-साथ सम्पूर्ण राज्य में कर्मचारियों को सक्रिय रूप से जोड़े रखना था। अब तक आन्दोलन को निदेशालय कर्मचारियों के बड़े हिस्से का समर्थन नहीं मिल रहा था। शुरू में नेताओं से बात की तो आजकल में बैठक करके निर्णय लेने की बात करते रहे। अन्ततः हमने सर्वकर्मचारी संघ के वालंटियर्स के जरिए हर सीट पर जाकर अपील करने और आर्थिक सहयोग मांगने की कार्यनीति बनाई। यह प्रयोग कारगर रहा। फील्ड से कुछ नेताओं को बुला लिया गया था। उनके अलावा कुछ डीवाईएफआई के कार्यकर्ता भी स्वेच्छा से मदद देने आ पहुंचे। अब हम एक टीम थर्टी बेज बिल्डिंग में चलाते, एक सैक्टर 26 में, एक अन्य बिखरे हुए कार्यालयों में, एक पंचकुला में तथा पंचकुला से ऊपर के विद्यालयों व दफ्तरों में चलाने में सफल हो गए थे। नया अनुभव रोमांचकारी रहा। भूखहड़ताल स्थल पर लंच समय पर रौनक होने लगी। सुबह ड्यूटी आते समय और सायंकाल जाते समय कर्मचारी पंडाल में आकर नारेबाजी में शामिल होते। चण्डीगढ़ के मोर्चे का पूरा खर्च भी यहां से प्राप्त चन्दे से चल जाता। इसके अलावा निदेशालय के प्रत्येक विभाग से कुछ लोग जुड़ने लगे थे, जिनके कारण वहाँ के नेताओं का काम भी आसान हो गया। अब वे बेझिझक गेट मीटिंग्स को सम्बोधित करने लगे थे। पंचकुला में सक्रियता का असर यह पड़ा कि वहाँ सर्वकर्मचारी संघ की ईकाई गठित हो गई। हुडा के सरकारी वकील आर.एस. साथी और मंडी बोर्ड के आजाद सिंह मलिक ऐसे कार्यकर्ता बने जो न केवल स्थायी रूप से जुड़ गए, बल्कि बाद में श्री आजाद सिंह राज्याध्यक्ष पद तक निर्वाचित हुए। ग्यारह अप्रैल को बनवारीलाल बिश्नोई को भी गिरफ्तार कर लिया। इसके बाद एक्शन कमेटी ने मरणव्रत पर और किसी नेता को न बैठाने का निर्णय लिया। इसका कारण यह था कि दोनों नेता पुलिस हिरासत में भी भूखहड़ताल जारी रखेंगे तथा शेष नेता कर्मचारियों को प्रेरित करने के लिए फील्ड में अपना समय लगाएंगे। तीस मार्च से चण्डीगढ़ मोर्चे को संभालने का काम बनवारीलाल जी को सौंपा गया था। उनके अनशन शुरू करने पर मास्टर शेरसिंह को ईंचार्ज बना दिया। छह अप्रैल को उन्हें फील्ड में जाना पड़ा तो चण्डीगढ़ की जिम्मेदारी ऋषिकांत शर्मा को सौंप दी गई। चार दिन बाद उन्हें भी बाहर भेजना पड़ा तो 1406, सैक्टर 22 बी चण्डीगढ़ के दफ्तर को चलाने का कार्यभार सत्यपाल सिवाच पर आ गया। यह जिम्मेदारी आन्दोलन की समाप्ति यानी 14 मई तक बनी रही।

आन्दोलन तेज हुआ

कर्मचारियों में बढ़ते रोष और आन्दोलन में भागीदारी के बावजूद बंसीलाल सरकार अपने अड़ियल रवैये पर कायम रही। सर्व कर्मचारी संघ ने सरकार की ओर से लगाए जा रहे राजनीति प्रेरित होने के आरोप का खण्डन करते हुए लोगों के बीच जो बात कही उससे आम आदमी ने कर्मचारियों का समर्थन करना शुरू कर दिया। इसके चलते सरकार को राजनीतिक धरातल पर भी चुनौती मिलने वाली थी, लेकिन उन्होंने तोड़फोड़ और दमन की नीति ही जारी रखी। इसका जवाब देने के लिए रणनीति में परिवर्तन किया गया। दिनांक 23.04.1987 को हिसार, सिरसा व जीन्द जिलों के पंद्रह हजार से ज्यादा कर्मचारी गिरफ्तारी देने चण्डीगढ़ पहुंचे। उस दिन बुड़ैल जेल भी सभागार बन गई थी। पहले से गिरफ्तार कर्मचारियों के अलावा इतनी बड़ी संख्या को रखना आसान नहीं था। फूलसिंह श्योकन्द की जीवन-संगिनी सुशीला ने ललकारते हुए प्रशासन को चेतावनी दी थी कि यदि उनके पति को कुछ हुआ तो वे कर्मचारियों के लिए मरणव्रत पर बैठेंगी। उल्लेखनीय है कि उन्हें आन्दोलन की वजह से आईटीआई में हिन्दी शिक्षक की अस्थायी नौकरी से निकाल दिया गया था। उनके सम्बोधन का बिजली सा असर हुआ। इस तरह उत्साह और जुझारू जंग के मूड में लाखों कर्मचारियों और उनके परिजनों ने भूखहड़ताली साथियों के समर्थन में 26.04.1987 को सामूहिक भूखहड़ताल की। अगला आह्वान तीन मई दिल्ली के बोट क्लब पर पहुंचने का था। सरकार द्वारा रुकावटें डालने के बावजूद लाखों कर्मचारी बोट क्लब पर पहुंच गए। कर्मचारी राष्ट्रपति महोदय के सामने अपनी बात रखना चाहते थे; जायज पीड़ाएं बताना चाहते थे और बंसीलाल द्वारा संविधान और कानून के शासन को ठेंगा दिखाने की आपबीती सुनाना चाहते थे। इसका प्रबंध करने की बजाए दिल्ली पुलिस ने आगे बढ़ते कर्मचारियों पर भारी हमला बोल दिया। रबड़ की गोलियां चलाई गई ; आंसू गैस के सैल फैंके गए और बर्बर लाठीचार्ज किया। इससे गुस्साए कर्मचारी पुलिस से भिड़ गए। आंसू गैस से बचने के लिए गीले परणे और रूमाल आँखों पर रख लिए। कुछ अतिउत्साही कार्यकर्ताओं ने आंसू गैस के गोलों को पकड़कर पुलिस की ओर फैंकना शुरू कर दिया। इस कार्रवाई में सैंकड़ों कर्मचारी जख्मी हो गए। जो भी पकड़ा गया उसे जेल में बंद कर दिया गया। तनाव और दमन की स्थिति का ठोस जवाब देने के लिए रैली को चार मई तक बढ़ा दिया। प्रशासन के हाथ-पांव फूल गए। इसलिए केन्द्र की ओर संकेत दिया गया कि राज्य सरकार को कर्मचारियों से बात करके हल निकालने के लिए कहा जाएगा। इधर सर्वकर्मचारी संघ ने 7-8 मई 1987 को दो दिन की सम्पूर्ण हड़ताल करके दमनतंत्र का कारगर जवाब देने का आह्वान कर दिया गया था। हड़ताल के दोनों दिन पूरे राज्य में बलप्रयोग करके डराने की कोशिश की गई। चण्डीगढ़ के सैक्टर 26 में कर्मचारी सभा को सम्बोधित करते हुए मास्टर शेर सिंह को गिरफ्तार कर लिया गया। इन दो दिनों में पाँच हजार से अधिक कार्यकर्ता पकड़े गए, लेकिन कर्मचारियों का जोश बढ़ता ही गया। अनुमान है कि लगभग तीन लाख कर्मचारी हड़ताल में शामिल हुए थे। यह रिकॉर्ड संख्या है। सरकार ने 5623 कर्मचारियों को न्यायिक हिरासत में भेजा, लगभग पैंतीस हजार को थानों में बैठाकर रखा गया। कच्चे कर्मचारियों को सीधे ही बर्खास्त कर दिया जिनकी संख्या 2451 थी। तेरह नेताओं को धारा 311(2)ए.बी.सी. के तहत बर्खास्त कर दिया गया ; 9272 कार्यकर्ता निलम्बित किए गए और 50 हजार से अधिक को चार्जशीट किया गया। अभूतपूर्व दमन झेलने के बावजूद अभी तक समाधान होने का कोई संकेत नहीं मिल रहा था।

घटनाक्रम बदला-समझौते के साथ आन्दोलन वापस

दिल्ली रैली और दो दिन हड़ताल के बाद तीन महत्वपूर्ण घटनाएं हुई जिन्हें याद करना चाहिए 1.एक्शन कमेटी के उपलब्ध नेताओं की सैक्टर 22 में गुप्त स्थान पर एक तहखाने में बैठक की गई। फूलसिंह, बनवारीलाल और मास्टर शेरसिंह हिरासत के चलते इसमें मौजूद नहीं थे। नेतृत्व के बीच संपर्क सूत्र के रूप में काम करने के कारण सत्यपाल सिवाच को भी शामिल किया गया था। आगामी कार्रवाई को लेकर काफी पेच फंसा हुआ था। बैठक के चलते समय तक सरकार की ओर से वार्ता का कोई संकेत नहीं मिला था। दिनांक 15 मई से स्कूलों के ग्रीष्मकालीन अवकाश को देखते हुए 13 मई से अनिश्चितकालीन हड़ताल का आह्वान किया गया था। 2.राज्य सरकार ने कर्मचारियों की मांगों पर विचार करने के लिए शमशेर सिंह सूरजेवाला की अध्यक्षता में कमेटी का गठन कर दिया था। 3.उधर दिल्ली में किए जा रहे प्रयत्नों के फलस्वरूप इंटक नेता हरीश रावत व एक अन्य (नाम याद नहीं) को बंसीलाल से बात करके समाधान करने की ड्यूटी लगाई गई थी। अनुभव की कमी, सूचना गैप, नेतृत्व के जेल या फील्ड में होने के चलते इस जटिल स्थिति में उचित हस्तक्षेप करने में देरी हो गई। सूरजेवाला ने अपना एक दूत हमारे 22 सैक्टर स्थित कार्यालय में भेजा। वह 10 मई को पूछताछ करके मुझे मिल भी लिया, लेकिन मैंने उन्हें लम्बे-तगड़े डीलडौल के कारण खुफिया एजेंसी का आदमी समझकर रास्ता नहीं दिया। साथ ही मुझे ऐसा लगता था कि दिल्ली में जो वार्ता चल रही है वह अधिक उपयोगी रहेगी। परामर्श करने के लिए एक्शन कमेटी का कोई नेता उपलब्ध नहीं था। टेलीफोन नहीं थे तो उनसे संपर्क करना भी आसान नहीं हो सकता था। दिनांक ग्यारह को सायंकाल मुझे सूचना मिली कि दिल्ली से जिन नेताओं की ड्यूटी लगाई गई थी उन्होंने हाथ खड़े कर दिए हैं। बंसीलाल ने उन्हें कोई महत्व नहीं दिया था। यह जानकारी मिलने पर मैंने सूरजेवाला की ओर से आए सूत्र को पकड़ने की चेष्टा की। किसी कार्यकर्ता के जरिए स्वयं मंत्री जी से कमेटी का संदर्भ देते हुए बातचीत करने के लिए प्रतिवेदन दिया। उन्होंने 13 मई का समय रख दिया। अब हमारे सामने दूसरी दिक्कत थी। एक्शन कमेटी का कोई नेता उपलब्ध नहीं था। सूरजेवाला के प्रयास से बुड़ैल जेल से मास्टर शेरसिंह को रिहा करवा दिया गया। प्रारंभिक बातचीत में शेरसिंह, निदेशालय के प्रताप सिंह सांगवान, सत्यपाल सिवाच के अलावा दो साथी और थे, अब उनके नाम याद नहीं आ रहे हैं। सूरजेवाला जी से ही बैठक में पता चला कि उनके द्वारा भेजे गए व्यक्ति उनके विभाग कोई एसडीओ थे। वार्ता शुरू हुई तब तक हड़ताल शुरू हो गई थी। एस्मा, गिरफ्तारी व आतंक के माहौल के चलते हड़ताल में भागीदारी घट गई थी। सूरजेवाला के पीए ने बताया कि आप मुख्यमंत्री जी से इसी समय बात करें। उन्होंने बैठक से उठकर लैंडलाइन फोन से बात की। बंसीलाल ने कहा - "हड़ताल असफल हो गई है। वार्ता बंद करो। किक देम आउट।" इस पर सूरजेवाला अड़ गए और उन्होंने पद छोड़ने की धमकी दी। केबिनेट ने कमेटी बनाई है। उसे अपना काम करने दीजिए। उनके अड़ जाने पर लगभग घंटे भर व्यवधान के बाद पुन: वार्ता शुरू हो गई। अब मुख्यमंत्री के चहेते मंत्री तैयब हुसैन और प्रधान सचिव आर एस वर्मा ने माहौल बिगाड़ने चेष्टा की। तैयब हुसैन ने कहा कि यह राजनीतिक आन्दोलन है। उन्होंने शेरसिंह की ओर मुंह करके कहा - "राजनीति ही करनी है तो इस्तीफा देकर तोशाम में बंसीलाल के खिलाफ चुनाव लड़ो।" जवाब में शेरसिंह ने शान्त रहते हुए कहा कि यह मीटिंग का विषय नहीं है। शायद अजेंडे पर ही बात की जाए तो अच्छा होगा। आर एस वर्मा ने मांगों के बारे में अड़ंगा डालने के अलावा उत्पीड़न की कार्रवाइयों को वापस नहीं लेने पर पॉजिशन लिए रखी। काफी जद्दोजहद के बाद सायंकाल छह बजे दूसरे दौर की वार्ता शुरू करने पर सहमति बनी। उस समय तक अलग-अलग जगहों पर गए हुए एक्शन कमेटी के नेताओं से भी प्रशासन का संपर्क हो चुका था। उन सभी के बैठक में शामिल होने की संभावना बन गई थी। यह बैठक लगभग साढ़े नौ बजे सम्पन्न हो गई थी। मांगें मान ली गई थी। उत्पीड़न समाप्त करना भी तय हो गया था। दूसरे दौर की वार्ता में एक्शन कमेटी के अलावा प्रताप सिंह सांगवान को ही शामिल किया गया था। यह तय हो गया था कि सुबह संक्षिप्त बैठक होगी। उसके बाद ही समझौते के बारे में जानकारी दी जाएगी। अगले दिन प्रातः दोनों मंत्री जनरल हॉस्पिटल जाकर फूलसिंह श्योकन्द व बनवारीलाल बिश्नोई का मरणव्रत खुलवाएंगे। हम हरियाणा निवास से दफ्तर लौटे तो याद आया कि आज प्रेसनोट नहीं दिया जा सका। फटाफट आधे पेज से कुछ ज्यादा में लिखा - हड़ताल की सफलता की बात कही; सरकार से बात हो रही है, यह कहा और शीघ्र ही नतीजा निकलने की उम्मीद जताई। तत्काल थ्री व्हिलर लेकर ट्रिब्यून व इंडियन एक्सप्रेस के दफ्तर पहुंचे। शेष के दफ्तर तो बंद हो चुके थे। मुझे नहीं लगता था कि हमारी खबर छप पाएगी। अगले दैनिक ट्रिब्यून में लीड न्यूज थी - "हड़ताल पिटी, पर कर्मचारी नहीं माने।" उसके नीचे हमारा प्रेसनोट शब्दशः छपा था। प्रशासन की ओर से विस्तार के फील्ड में हड़ताल की असफलता की खबरें छपी हुई थी। सूरजेवाला की ओर से जल्दी ही बातचीत सिरे चढ़ने की एक पंक्ति इसी खबर में थी। अगले दिन बैठकर जो तय हुआ था वह कागज पर उतारा गया और वही सरकार का प्रेसनोट बना। निर्धारित समय पर मंत्री जी हॉस्पिटल पहुंच गए, अनशन खुलवाया और हमारी ओर से आन्दोलन वापस लेने का ऐलान किया गया। सर्वकर्मचारी संघ की ओर से पूरे संघर्ष को समेटते हुए विस्तृत प्रेसनोट दिया गया। उपलब्धियां 23 नवम्बर 1986 को ऐतिहासिक नगरी कुरुक्षेत्र से शुरू हुआ संघर्ष 14 मई 1987 को सरकार के साथ समझौता होने पर समाप्त हुआ। आन्दोलन के परिणामस्वरूप माँगों के रूप में महत्वपूर्ण उपलब्धियां हासिल हुई। कर्मचारियों को चतुर्थ वेतन आयोग की सिफारिशें लागू होने से 120 करोड़ रुपए सालाना लाभ हुआ। हरियाणा ऐसा पहला राज्य बन गया जहाँ सरकारी व अर्द्धसरकारी कर्मचारियों के वेतनमान एक साथ व एक ही तिथि से संशोधित किए गए। सरकार को 01.04.1987 से नकद भुगतान करने की जिद्द छोड़कर 01.01.1987 से नकद भुगतान करना पड़ा। इसके अलावा केंद्रीय कर्मचारियों से असमानता व वेतन विसंगतियां दूर करने की मांग मानी गई। सामान्यतः धारा 311(2) ए.बी.सी. का प्रयोग न करने के लिए विभागाध्यक्षों को निर्देश देने, 240 दिन की सेवा नियमित करने की नीति बनाने तथा शेष कर्मचारियों के लिए भी नियमित करने की कारगर नीति बनाने व उत्पीड़न की सभी कार्रवाइयां वापस लेने पर सहमति बनी। इसके साथ ही आन्दोलन के दबाव में अनेक ऐसी विभागीय मांगें भी हल हो गई जिनके लिए लम्बे समय से संघर्ष चल रहे थे। कर्मचारियों में उत्पन्न हुई संगठन के प्रति आस्था, स्वाभिमान और विजय की प्रबल भावना अपने आप मेंं महत्वपूर्ण है। बिजली, रोडवेज, चतुर्थ श्रेणी, अध्यापक संघ और नगरपालिका में सर्वकर्मचारी संघ की स्थिति काफी मजबूत हुई थी।

उद्देश्य, कार्यनीति और नेतृत्व

सर्वकर्मचारी के आन्दोलन का उद्देश्य कर्मचारियों के हितों की रक्षा करना था। नेतृत्व ने अनुकूल परिस्थितियों का चयन किया। यह ऐसा अवसर था जब विधानसभा चुनावों के निकट होने के कारण कम से कम उत्पीड़न में कुछ मांगें हासिल की जा सकती थी। इसके साथ ही कर्मचारियों में घर कर गई निराशा और जड़ता को तोड़कर संगठन के प्रति विश्वास बढ़ाने का भी लक्ष्य तय किया गया। संगठनों में छिपे सरकारी दलालों, वैयक्तिक महत्वाकांक्षा रखने वालों तथा जाति आदि के संकीर्ण नारों के बल पर खड़े स्वार्थी नेताओं को कर्मचारियों में अलग-थलग करना भी आन्दोलन के परिप्रेक्ष्य में जुड़ गया। यह आन्दोलन बहुत व्यापक, अनुशासित, संगठित और सुनियोजित था। एक्शन कमेटी द्वारा सरकार की कार्यनीति को आंकते हुए लम्बे और चरणबद्घ संघर्ष का कार्यक्रम तय किया गया। संघर्ष की रणनीति इस तरह से तैयार की गई थी कि प्रत्येक कर्मचारी उसमें निर्भय होकर भाग ले सके। जिला स्तरीय धरनों से जोनल रैलियों और उसके बाद राज्य स्तरीय रैली आदि सभी कार्यक्रमों में कर्मचारियों की हाजिरी आगे से आगे बढ़ती गई। दिनांक 25.02.1987 को सामूहिक अवकाश, 02.04.1987 को सांकेतिक हड़ताल, संघ के दो नेताओं द्वारा क्रमशः 30.03.1987 और 04.04.1987 से आमरण अनशन व उनकी गिरफ्तारी, 26 अप्रैल1987 को एक दिवसीय सामूहिक भूख हड़ताल और धरना, 3 व 4 मई 1987 को दिल्ली में लाखों कर्मचारियों की अपूर्व रैली तथा 7-8 मई की हड़ताल ने कर्मचारियों में अदम्य उत्साह भर दिया था। बंसीलाल सरकार की हठधर्मिता व तानाशाहीपूर्ण नीतियों ने कर्मचारियों को और अधिक संगठित करने में मदद की। दिनांक 8 मई से उत्पीड़न में तेजी आ गई। पूरे राज्य को पुलिस छावनी में बदल दिया गया। आतंक फैलाने के इरादे से शहरों में फ्लैग मार्च किए गए। जनता को कर्मचारियों के खिलाफ खड़ा करने के लिए रेडियो, समाचार पत्रों और पोस्टरों के माध्यम से बड़े बड़े विज्ञापन दिए, लेकिन जनता की एकता तोड़ने की चाल कामयाब नहीं हो सकी। दलाल यूनियनों के नेता भी कर्मचारियों की एकता नहीं तोड़ पाए। आन्दोलन की सही रणनीति की वजह से सरकार को झुकना पड़ा और उसके साथ ही सरकारपरस्त और अवसरवादी नेतृत्व मुक्कमल तौर पर बेपर्दा हो गया। अतीत में हमारे राज्य के कर्मचारी आन्दोलन के नेतृत्व पर कर्मचारियों का विश्वास नहीं बन पाया था। हरियाणा सुबोर्डिनेट सर्विसेज फैडरेशन का नाम व नेतृत्व कर्मचारियों का भरोसा जीतने में विफल रहा था। उसकी विश्वसनीयता नहीं बची थी। "सर्व कर्मचारी संघ" का नाम व काम प्रत्येक कर्मचारी के दिल में समा गया। जहाँ तक नेतृत्व की बात थी, हमारे साथियों का कद आन्दोलन के दौरान बहुत ऊँचा हो गया था। उन्होंने उत्साह, विवेक, ईमानदारी और जूझारूपन की विशेष छाप छोड़ी थी। सरकार बहुत से प्रयत्नों के बावजूद एक्शन कमेटी के किसी नेता को तोड़ नहीं पाई, खरीद नहीं पाई और झुका नहीं पाई।

कर्मचारी और जनता

जब भी जनता को कोई मेहनतकश हिस्सा अपने अधिकारों को प्राप्त करने के लिए संघर्ष करने पर मजबूर होता है तो सरकार अपने वर्गीय चरित्र को छिपाने के लिए जनता को आपस में लड़ाने की कोशिश करती है। इसी उद्देश्य के लिए कर्मचारी आन्दोलन के दौरान प्रचार किया गया कि यदि कर्मचारियों की मांगें मान ली गई तो महंगाई बढ़ जाएगी; किसानों, मजदूरों व आम जनता पर और टैक्स लगाने पड़ेंगे; विकलांगों, विधवाओं और कमजोर तबकों को दी गई सुविधाओं में कटौती करनी पड़ेगी; सरकार जनता की तकलीफें बढ़ाकर कर्मचारियों की मांगें नहीं मान सकती। इसलिए लोग बताएं कि इनके खिलाफ कैसा सुलूक किया जाए? सरकार चाहती थी कि किसान, मजदूर और बेरोजगार युवक कर्मचारियों से भिड़ जाएं। ऐसा करके सरकार इस तथ्य को छिपाने की कोशिश कर रही थी कि कर्मचारी किसी धनकुबेर की सन्तान नहीं हैं, बल्कि वे मेहनतकश जनता के बेटे-बेटियां हैं, उनका अभिन्न अंग हैं। दूसरे यह बात छिपाने का भी प्रयास था कि हमारी सात में से पाँच मांगों को लागू करने पर एक पैसा भी खर्च नहीं होना था। जनता सरकार के झांसे में नहीं फंसी तथा उसके सभी हिस्सों - किसानों, मजदूरों, महिलाओं, युवाओं, छात्रों ने हमारे आन्दोलन को पूरा समर्थन दिया, हमारे लिए लाठियां खाईं और जेलों में गए। उस आन्दोलन का एक सबक यह भी रहा कि कोई भी आन्दोलन समाज के जनवादी आन्दोलन से अलग रहकर नहीं चलाया जा सकता है और इसीलिए कर्मचारियों ने भविष्य के लिए जनता के साथ बने रहने को अपनी कार्यनीति में शामिल कर लिया है।

कर्मचारी और राजनीति

सरकार की ओर से कर्मचारी आन्दोलन को राजनीति से प्रेरित बताया गया और कहा गया कि इसके पीछे सी.पी.एम. का हाथ है, लोकदल का हाथ है और कभी कहा गया कि भजनलाल का हाथ है। विधानसभा चुनाव के दौरान भी यह सवाल उठाया गया। सर्वकर्मचारी संघ की ओर से पहले ही स्पष्ट कर दिया गया था कि उनकी राजनीति कर्मचारियों के हितों और प्रतिष्ठा को मजबूत करने की राजनीति है। वे कर्मचारियों का हित चाहते हैं और उन्होंने अपने रास्ते का समर्थन करने वालों को अपना साथी और विरोध करने वालों को अपना विरोधी कहा। आन्दोलन के दौरान कर्मचारियों ने अच्छी तरह देख लिया था कि किस प्रकार से वर्गीय राजनीति के हथियार के रूप में तमाम प्रशासनिक मशीनरी आन्दोलन को तोड़ने में लगी हुई थी। आजाद भारत के नागरिक के रूप में भी हमारे ऊपर राजनीति को समझने का दायित्व आता है। सर्वकर्मचारी संघ कोई राजनीतिक दल नहीं है और न ही किसी पार्टी के हितों के लिए हमारे संगठन या आन्दोलन का इस्तेमाल किया जा सकता है। कर्मचारियों ने अपनी आँखों पर पट्टी नहीं बांध रखी थी। वे जनता का सचेत एवं संगठित हिस्सा हैं। इसलिए राजनीति की बारीकियों को भलीभांति समझते हैं। यही आज तक सर्वकर्मचारी संघ की कार्यनीति है।  
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